'इंडिया! इंडिया!' : स्टेडियम के अंदर भारतीय टीम के लिए माहौल बनाने वालों की तपस्या की कहानी
कोई अपने पूरे परिवार के साथ मेहनत करता है तो कोई इस विश्व कप में हज़ारों किलोमीटर का सफ़र तय कर रहा है
फ़ैन जर्सी को फ़ैन्स तक पहुंचाने वालों के पीछे की मुश्किल लेकिन क्रिकेट के प्यार की कहानी
कोई कोलकाता से आते हैं... तो कोई मुंबई से... न खाने का ठिकाने का, न रहने का अशियानाकोलकाता के दमदम के रहने वाले 46 वर्षीय स्वदेश शेखर हालदार का यह दूसरा विश्व कप है। इससे पहले जब 2011 में भारतीय उपमहाद्वीप में विश्व कप हुआ था, तब भी वह भारतीय टीम के साथ उन शहरों की यात्रा कर रहे थे, जहां-जहां पर भारत के मैच हुए थे।
हालांकि हालदार कोई बहुत बड़े क्रिकेट प्रेमी नहीं हैं और उन्होंने स्टेडियम में बैठकर कभी कोई मैच देखा भी नहीं है। वह घूम-घूमकर हर स्टेडियम के बाहर खिलाड़ियों की जर्सी, झंडे, सीटियां और टोपी बेचते हैं।
वह पिछले 25 दिनों में चेन्नई से लेकर दिल्ली होते हुए लखनऊ तक की लगभग 6750 किलोमीटर की यात्रा कर चुके हैं और अहमदाबाद में होने वाले विश्व कप फ़ाइनल से पहले उन्हें लगभग 3000 किलोमीटर की यात्रा और करनी है। वह 3 अक्तूबर को ही घर से निकले थे, तब से वह भारत भ्रमण पर हैं।
हालदार ने विश्व कप की तैयारी 3 महीने पहले ही शुरू कर दी थी और उन्होंने हर उन जगहों का रेलवे टिकट रिजर्वेशन करा लिया था, जहां पर भारत के मैच होने निर्धारित हुए थे। अब तक वह चेन्नई, अहमदाबाद, पुणे और लखनऊ की यात्रा कर चुके हैं, इसके बाद उन्हें कोलकाता, मुंबई और बेंगलुरू भी जाना है। अगर भारत सेमीफ़ाइनल और फ़ाइनल में पहुंचता है, तो वह फिर से मुंबई और अहमदाबाद जाएंगे, जिसके लिए उन्होंने अग्रिम रिज़र्वेशन पहले ही करा लिया है।
उन्होंने 1998 से ही यह काम शुरू कर दिया था। पहले वह झंडा और टोपी अधिक बेचते थे, लेकिन 2011 विश्व कप से उन्होंने खिलाड़ियों के नाम और नंबर वाला टी-शर्ट भी बेचना शुरू कर दिया। वह बताते हैं, "पहले झंडा, रिबन हेडबैंड और टोपी अधिक बिकता था, लेकिन अभी टी-शर्ट अधिक बिकता है। हम एक शहर में 150 के क़रीब टी-शर्ट बेचने का लक्ष्य रखते हैं, कभी 100 तो कभी 120 टी-शर्ट बिक ही जाता है।"
विराट का टी-शर्ट सबसे अधिक बिकता है, जबकि इसके बाद रोहित, धोनी, सूर्या और शुभमन के टी-शर्ट की भी मांग रहती है। हालांकि लोग अब पैसे देने से कतराते थे। पहले लोग एक टी-शर्ट के लिए 400-500 रूपये भी दे देते थे, लेकिन अब 200-250 देने से भी कतराते हैं, इसलिए इस धंधे में लाभ कम हो गया है।टीशर्ट विक्रेता परितोष
हालदार की तरह ही ऐसे लगभग दो दर्जन लोग हैं, जो घूम-घूमकर भारत के मैचों में टी-शर्ट, झंडे और टोपियां बेचने का काम कर रहे हैं। वे मैच से दो दिन पहले उस शहर में आ जाते हैं और स्टेडियम के पास फ़ुटपाथ पर ही नीचे ज़मीन पर टाट और पन्नी बिछाकर अपना दुकान सजाते हैं। उनके पास विराट कोहली से लेकर रोहित शर्मा, शुभमन गिल और सूर्यकुमार यादव के नाम और नंबर के टी-शर्ट हैं, जबकि संन्यास लेने के बाद पूर्व भारतीय कप्तान महेंद्र सिंह धोनी का टी-शर्ट अब भी लोगों का पसंदीदा है।
ऐसे ही एक दुकानदार परितोष रॉय (55 साल) बताते हैं, "विराट का टी-शर्ट सबसे अधिक बिकता है, जबकि इसके बाद रोहित, धोनी, सूर्या और शुभमन के टी-शर्ट की भी मांग रहती है। हालांकि लोग अब पैसे देने से कतराते थे। पहले लोग एक टी-शर्ट के लिए 400-500 रूपये भी दे देते थे, लेकिन अब 200-250 देने से भी कतराते हैं, इसलिए इस धंधे में लाभ कम हो गया है। लेकिन हम पिछले कई सालों से यह काम कर रहे हैं, इसलिए अब दूसरा कोई धंधा करने का जोखिम भी नहीं ले सकते।" रॉय ने बताया कि जब क्रिकेट सीज़न नहीं होता है, तो वह कोलकाता में मछली का भी कारोबार करते हैं, वहीं हालदार ऐसे समय में कोलकाता की गलियों में फल बेचते हैं।
हज़ारों किलोमीटर दूर से आए इन लोगों के लिए सबसे बड़ी चुनौती खाने और रहने की होती है। कुछ लोग आस-पास के छोटे होटल या लॉज़ में किराए पर कमरा ले लेते हैं, लेकिन कुछ लोग अपने लाभ को अधिक करने के लिए फ़ुटपाथ पर ही सोना पसंद करते हैं।
मुंबई से आए हुए उमेश काले (38 साल) बताते हैं, "अगर हम होटल में रहने और खाने लगेंगे तो पैसा बचेगा ही नहीं। फिर इतनी मेहनत करके यह धंधा करके क्या ही फ़ायदा। इसलिए हम लोग स्टेडियम के आस-पास किसी फ़ुटपाथ पर सो जाते हैं और बर्तन लेकर चलते हैं ताकि खाना भी बना सके।"
काले के साथ-साथ उनकी मां, भाई, भाभी और एक छोटी बेटी भी हैं। टी-शर्ट अधिक हों, इसलिए दोनों भाई अगल-बगल अलग-अलग दुकान लगाए हैं। बगल में उनकी मां और भाभी खाना भी बना रही हैं।
काले ने बताया कि वह पिछले 20 साल से यह काम कर रहे हैं। उन्होंने 2011 विश्व कप भी किया था और कोरोना काल को छोड़कर वह 2008 से हर आईपीएल का भी हिस्सा रहे हैं। क्रिकेट सीज़न नहीं होता है, तो वह क्या करते हैं? इस सवाल के जवाब में उन्होंने बताया कि तब वह हॉकी और फ़ुटबॉल ख़ासकर इंडियन सुपर लीग के मैचों के लिए भी अलग-अलग शहर जाते हैं।
राजा मंडल कि ट्रेन सुबह ही लखनऊ पहुंची है। चूंकि मैच से पहले यह आख़िरी दिन था, इसलिए राजा स्टेशन से ही चाय और पावरोटी खाकर स्टेडियम के लिए रवाना हो गए। इसके बाद देर शाम तक उन्होंने खाना नहीं खाया क्योंकि स्टेडियम के आस-पास ऐसी कोई सस्ती जगह नहीं है, जहां पर वह कम दाम में भरपेट थाली खाकर अपना भूख मिटा सके। जो आस-पास रेहड़ी लगती भी थीं, उन्हें भी पुलिस वालों ने सुरक्षा व्यवस्था के कारण स्टेडियम से दूर भेज दिया है। इसलिए वह बगल में खड़ी ठेले की पैटीज़ खाकर अपना भूख बुझाने की कोशिश कर रहे हैं।
मंडल कहते हैं, "इस काम में संघर्ष बहुत है और बहुत ही अधिक यात्रा करनी पड़ती है। कई बार ट्रेन में भी यात्रा करते हैं, वहां भी पुलिस वाले कपड़े का बड़ा बैग होने के कारण हमें परेशान करते हैं। इसके अलावा स्टेडियम के आस-पास भी पुलिस वाले हमारी दुकान को इधर-उधर करते रहते हैं। इसके अलावा पूरा खाना सिर्फ़ रात में ही मिल पाता है, दिन में तो ऐसे ही पैटीज़-समोसे खाकर पेट भरना पड़ता है।"
तमाम संघर्षों के बावजूद भी मंडल अपने काम को बहुत पसंद करते हैं, क्योंकि उनके मुताबिक क्रिकेट से उन्हें प्यार है और वह ख़ुश हैं कि वह किसी ना किसी तरह से इस खेल से जुड़े हैं।
दया सागर ESPNcricinfo हिंदी में सब एडिटर हैं. @sagarqinare
Read in App
Elevate your reading experience on ESPNcricinfo App.