एक्सप्लेनर: टेस्ट मैचों में कैसे होता है रिप्लेसमेंट गेंदों का प्रयोग?
गेंदों के बॉक्स में अतिरिक्त गेंदें कहां से आती हैं और उनके बदले जाने के क्या नियम हैं?
Kumble: There can't be so many ball changes in a Test match
Anil Kumble reacts to the Dukes ball saga in the ongoing England-India Test at Lord'sइंग्लैंड-भारत टेस्ट सीरीज़ के दौरान एक आम बात यह रही है कि गेंदें बार-बार बदली जा रही हैं क्योंकि ड्यूक गेंदें जल्दी अपना आकार खो दे रही हैं। क्या आपने सोचा है कि रिप्लेसमेंट गेंदें कहां से आती हैं, उन्हें कैसे छांटा और चुना जाता है। यहां आपको सब कुछ मिलेगा।
रिप्लेसमेंट गेंदें कहां से आती हैं?
टेस्ट से दो या तीन दिन पहले मेज़बान एसोसिएशन अपने मैदान पर खेले गए प्रथम श्रेणी मैचों में इस्तेमाल की हुई गेंदें देता है। अगर मैच ओल्ड ट्रैफ़र्ड में है तो लैंकशायर ये गेंदें चौथे अंपायर को देगा। वहीं SCG के लिए न्यू साउथ वेल्स और वानखेड़े के लिए मुंबई क्रिकेट एसोसिएशन ऐसा करेंगे।
इसके बाद चौथा अंपायर गेंदों को गेज से गुज़ार कर जांचता है। अगर गेंद एक रिंग से निकलती है और दूसरे से नहीं तो वह "गेंदों के बॉक्स" में जाने के लिए योग्य मानी जाती है। यह वही बॉक्स होता है, जिसे गेंद बदले जाने की प्रक्रिया के दौरान चौथे अंपायर द्वारा मैदान में लाया जाता है। जो गेंद दोनों रिंग से निकल जाती है वह खेलने लायक़ नहीं मानी जाती, यानी वह बहुत छोटी होती है।
जो गेंद दोनों रिंग में से किसी से नहीं निकलती वह बहुत बड़ी मानी जाती है और उसे भी खेलने योग्य नहीं माना जाता। जो एक से निकले और दूसरी से नहीं वही सही आकार होता है। संभावित रिप्लेसमेंट गेंदों की संख्या मैदान पर निर्भर करती है। भारत, इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया के टेस्ट मैचों में आम तौर पर लगभग 20 रिप्लेसमेंट गेंदें रहती हैं, लेकिन कुछ देशों में यह संख्या सिर्फ़ 12 तक भी हो सकती है।
अगर चौथे अंपायर को ज़्यादातर गेंदों में दिक्कत दिखे या योग्य गेंदें कम लगें तो वह बाकी ऑफ़िशिएटिंग टीम, मसलन मैदानी अंपायर, तीसरे अंपायर और मैच रेफ़री के साथ यह बात उठाता है और फिर सब मिलकर एसोसिएशन से और गेंदें मंगवाते हैं। यही प्रक्रिया नई गेंदों के लिए भी होती है। हर नई गेंद टेस्ट से पहले रिंग्स में डाली जाती है।
कोशिश यह रहती है कि नई से लेकर आधी नई और पुरानी गेदों का सबसे बड़ा रेंज उपलब्ध हो। कोई गेंद जो हरे आउटफ़ील्ड पर 60 ओवर चली हो, वह सूखे आउटफ़ील्ड पर खेले जा रहे टेस्ट में 30 ओवर चली गेंद का भी रिप्लेसमेंट बन सकती है।
तो क्या हर स्थिति के लिए हमारे पास सही गेंद होती है?
नहीं, बिल्कुल हुबहू गेंद लाना संभव नहीं होता। सबसे अच्छा यही किया जा सकता है कि दिखावट और घिसावट में जो गेंद, मूल गेंद के सबसे नज़दीक है, वही दी जाए। वह कुछ ज़्यादा पुरानी भी हो सकती है या कुछ नई भी।
इसलिए अंपायर गेंद को तब तक बदलने से हिचकते हैं जब तक उसका आकार पूरी तरह न बिगड़ जाए। मैच की निष्पक्षता बनाए रखने के लिए साधारण नियम यही है कि तब ही गेंद बदली जाए, जब मौजूदा गेंद से खेल जारी रखना मुमकिन न हो। टीमें स्वाभाविक तौर पर अपने मुफ़ीद गेंद चाहेंगी, बदलाव से किसी एक के नाख़ुश होने की आशंका रहती है।
यह भी याद रखें कि नियमों में सिर्फ़ गेंद के मुलायम होने के कारण गेंद बदलने का प्रावधान नहीं है। गेंद तब बदली जाती है जब उसका बिगड़ा हुआ आकार साफ़ दिखे। आकार को लेकर भी नियम कहीं नहीं कहते कि गेंद पूरी तरह गोल होनी चाहिए। आकार का एकमात्र मानदंड यही है कि गेंद गेज की दोनों रिंग से न गुज़रे। अगर वह एक से गुज़रे और दूसरी से न गुज़रे, सीम ठीक हो और गेंद सूखी हो तो फिर चाहे वह कितनी भी नरम लगे, आपको उसी से खेलना होगा।
क्या सिर्फ़ स्थानीय प्रथम श्रेणी मैच ही रिप्लेसमेंट गेंदों का स्रोत होते हैं?
नहीं, कई बार मैच अधिकारियों को अगर लगे कि रिप्लेसमेंट गेंदें जल्दी ख़त्म हो रही हैं तो वे टीमों से अपने नेट्स की इस्तेमाल की हुई गेंदें देने को कह सकते हैं। इन्हें भी गेंदों के बॉक्स में रखने से पहले रिंग जांच से गुज़ारा जाता है।
गेंदों का एक और स्रोत सीरीज़ के पहले खेले गए मैच होते हैं। अगर सीरीज़ के किसी टेस्ट में कोई पारी 45 ओवर चली हो तो वह गेंद लाइब्रेरी में भेजी जा सकती है, बशर्ते रिंग जांच में वह गेंद पास हो जाए और किसी गेंदबाज़ ने उसे पांच विकेट के यादग़ार के तौर पर रखने की इच्छा न जताई हो।
ऐसे मामले भी रहे हैं जब मैच की गेंदें बहुत जल्दी बिगड़ गई हों और मैच रेफ़री को पास की काउंटी या एसोसिएशन से और गेंदें मंगवानी पड़ी हों।
रुकिए, तो क्या सीरीज़ के किसी पहले मैच में स्विंग कराने वाली ख़तरनाक गेंद, दोबारा खेल में आ सकती है?
हां, लेकिन किसी को नहीं पता कौन सी गेंद, कौन सी है। गेंद पर कोई अलग निशान नहीं लगाया जाता और एक बार लाइब्रेरी में जाने के बाद उन्हें अलग पहचानना लगभग नामुमकिन होता है।
क्या अंपायर गेंदबाज़ी टीम की भागीदारी के बिना गेंद बदल सकते हैं?
हां कर सकते हैं, लेकिन वे ऐसा तभी करते हैं जब उन्हें बॉल टेम्परिंग का शक हो या गेंद इतनी क्षतिग्रस्त हो कि सिर्फ़ कैंची से किनारा काटना काफ़ी न हो।
बॉल टेम्परिंग का मामला धोखाधड़ी का मामला होता है, इसलिए इसके लिए दृश्य प्रमाण चाहिए होते हैं। हालांकि अंपायरों द्वारा गेंद बदलाव कम ही होते हैं। हर विकेट गिरने पर, ड्रिक्स ब्रेक में, जब गेंद LED बोर्ड से टकराए या भीड़ में चली जाए और लंबे ब्रेक के दौरान भी गेंद उनके पास जांच के लिए आती है। वे ओवरों के बीच में या ओवरों के दौरान नियमित जांच नहीं करते।
How the Dukes ball is made and why it's going out of shape
Dilip Jajodia, the owner of the company that makes the Dukes, says there could be a lot of factors affecting the shape of the ball and that a review may be neededलॉर्ड्स में तीसरे टेस्ट की दूसरी सुबह जब गेंद का आकार साफ़ बिगड़ चुका था, लेकिन वह भारत के लिए बहुत कुछ कर रही थी, तब भी गेंद का बदलाव नहीं हुआ होता, अगर भारत ने इसकी मांग न की होती। हुआ यह कि रिप्लेसमेंट गेंद ने उनकी मदद नहीं की और आठ ओवरों में उस गेंद का भी आकार बिगड़ गया।
क्या गेंदों का आकार बिगड़ना किसी एक ब्रांड की समस्या है?
टेस्ट क्रिकेट में तीन ब्रांड की गेंदें इस्तेमाल होती हैं: भारत में SG, इंग्लैंड और वेस्टइंडीज़ में ड्यूक्स और बाक़ी जगह कूकाबूरा। आकार बिगड़ना किसी एक ब्रांड तक सीमित नहीं है।
2010 के दशक के अंत में SG गेंदें अक्सर अपना आकार खो देती थी और खिलाड़ी इसे बदलने की मांग करते थे। कूकाबूरा को अक्सर तीनों में सबसे कम उभरी सीम के लिए आलोचना मिलती थी, लेकिन हाल के वर्षों में उनकी मैन्युफ़ैक्चरिंग प्रक्रिया ने सीम को मज़बूत किया है।
ड्यूक्स अभी चर्चा में है क्योंकि दोनों टीमों ने इसको लेकर बार-बार शिकायत की है। यहां तक कि वेस्टइंडीज़ में चल रही सीरीज़ के पहले टेस्ट के दौरान भी खिलाड़ी गेंद से ख़ुश नहीं दिखे।
पर इसमें खेल-रणनीति भी बहुत होती है। आम तौर पर शिकायत तब दिखती है जब विकेट नहीं गिर रहे होते हैं। लॉर्ड्स के आख़िरी दिन जब सॉफ़्ट गेंद से गेंदबाज़ी करना इंग्लैंड के हित में था ताकि रवींद्र जाडेजा को स्ट्राइक न मिले, तब गेंद के आकार पर सवाल ही नहीं उठा। अक्सर गेंदबाज़ी करने वाली टीमें तब बदलाव मांगती हैं जब कुछ हो नहीं रहा होता, इस उम्मीद में कि लाइब्रेरी में मौजूद गेंद, मौजूदा गेंद से ख़राब नहीं होगी।
रिप्लेसमेंट के मामले में ड्यूक्स का एक फ़ायदा यह है कि गेंद पर साल पहचानने वाला स्टैम्प (बैच नंबर जैसा) होता है। इसलिए 2025 में आप 2023 की या किसी दूसरी बैच की ड्यूक्स गेंद से नहीं खेल सकते। SG और कोकाबुरा पर ऐसा पहचान चिह्न नहीं होता।
सिद्धार्थ मोंगा ESPNcricinfo में सीनियर राइटर हैं
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