हम एक ऐसे दौर में जी रहे हैं जहां थोड़ी देर रुक कर सांस लेने का भी समय नहीं है। यहां थमने, प्रतिक्रिया देने, उदास होने और जश्न मनाने का समय नहीं है। आपको आगे बढ़ना होता है। एक नज़र में टी20 विश्व कप भी अब बीते दिनों की घटना लगती है। विश्व विजेताओं के लिए कोई भव्य स्वागत नहीं होता और न ही कोई परेड निकाली जाती है। इंग्लैंड अब एक बार फिर से अपने लश्कर के साथ मैदान में है। इस समय जब मैं यह लिख रहा हूं तब ऑस्ट्रेलिया के ख़िलाफ़ पहले वनडे में जॉस बटलर अपनी टीम को 66 पर चार के स्कोर से संभालने का प्रयास कर रहे हैं। दूसरी तरफ़ भारत और न्यूज़ीलैंड जो बीते विश्व कप में फ़ाइनल तक पहुंच सकते थे, वे एक और द्विपक्षीय सीरीज़ खेलने वाले हैं।
आप कह सकते हैं कि यह ठीक भी है। जब आसपास का जीवन धुंधला है, तो खेल को अलग क्यों होना चाहिए?
लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है? खिलाड़ियों से पूछिए या उन प्रशंसकों से पूछिए जो इस खेल की परवाह करते हैं। यहां तक कि अति-संक्रमण के इस समय में खेल की यादें बड़ी घटनाओं और विश्व कप के आसपास बनाई जाती हैं। हालांकि इन दिनों विश्व कप भी लगातार हो रहा है। अगर ऐसा कुछ है, जिससे दिल टूटता है तो भारत में इस तरह की भावनाएं स्पष्ट रूप से महसूस होती है। यहां एक विश्व कप होने पर एक अरब से अधिक दिल उम्मीदों में धड़कते हैं।
आप यह दलील दे सकते हैं कि एक टीम की क्षमता को एक विश्व कप के प्रदर्शन के आधार पर नहीं आंका जाना चाहिए और टी20 में तो बिल्कुल भी नहीं, जहां बड़े प्रारूपों की तुलना में भाग्य और कई अकल्पनीय घटनाएं अधिक बड़ी भूमिका निभाती हैं। हालांकि अब जबकि टूर्नामेंट से बाहर हुए उन्हें एक सप्ताह से अधिक हो गया है, विश्व कप में भारत के अभियान के साथ अब भी कई सवाल जुड़े हुए हैं। टीम में त्रुटियों की कोई कमी नहीं थी और त्रुटिपूर्ण प्रदर्शनों की श्रृंखला के कारण उन्हें सेमीफ़ाइनल में प्रवेश करने के लिए क़िस्मत का सहारा लेना पड़ा।
पाकिस्तान के ख़िलाफ़ मुक़ाबले में कुछ अविश्वसनीय स्ट्रोक और भाग्य ने बेड़ा पार लगा दिया। और कौन भला यह जानता है कि यदि बांग्लादेश के ख़िलाफ़ मैच बारिश से प्रभावित नहीं होता तो लिटन दास कितनी दूर तक जा सकते थे? टॉप ऑर्डर हर उस आक्रमण के ख़िलाफ़ विफल रहा जिसमें धार थी। 175 से अधिक के उनके स्कोर भी कमज़ोर टीमों के ख़िलाफ़ ही आए।
जसप्रीत बुमराह और रवींद्र जाडेजा की अनुपस्थिति ने भारतीय टीम को अपनी योजना में बदलाव लाने पर मजबूर कर दिया। उन्हें अपने स्पिनर का चुनाव भी बल्लेबाज़ी करने की क्षमता के आधार पर करना पड़ा, जिसका मतलब था कि उन्होंने आक्रमण के विकल्प को बेंच पर बैठा दिया। बतौर फ़िनिशर कार्तिक को टीम में शामिल करने से बल्लेबाज़ी क्रम सिर्फ़ दाएं हाथ के बल्लेबाज़ों से भर गया। अब यह बहुत अधिक तक साफ़ दिख रहे कि विश्व कप कुछ सदस्यों ने अपना अंतिम टी20 अंतर्राष्ट्रीय मुक़ाबला खेल लिया है।
न्यूज़ीलैंड के ख़िलाफ़ द्विपक्षीय श्रृंखला टी20 में आज़ादी के साथ खेलने का अवसर लेकर आई है। जिस तरह की क्रिकेट भारतीय टीम ने हाल ही के दिनों में खेली है उससे यह अपने आप में सिद्ध होता है कि वह टी20 को पुराने ढर्रे पर खेल रहे हैं जोकि कई माैकों पर ज़ाहिर भी हुई है। 2021 में सेमीफ़ाइनल की दौड़ से बाहर होने के बाद से ही राहुल द्रविड़ और
रोहित शर्मा की अगुवाई में भारतीय टीम ने बल्ले के साथ एक अधिक आक्रामक शुरुआत पाने के प्रयास किए हैं।
रोहित की अगुवाई में टॉप ऑर्डर ने अधिक आक्रमण किए। हमने
विराट कोहली उनकी पारी के शुरुआती क्षणों में ही गेंद पर आक्रमण करते और स्लॉग करते देखा था। इस रवैए से दोनों विश्व कप की अवधि के दौरान पावरप्ले स्कोरिंग रेट में काफ़ी सुधार आया। यह कुछ इस तरह का खेल था जिसे उन्हें विश्व कप खेलने की उम्मीद की जा रही थी।
लेकिन जिस तरह से टूर्नामेंट में उछाल के साथ साथ स्विंग और सीम की आमद हुई और इस तथ्य को भी जोड़ दें कि आयोजकों ने बाउंड्री लाइन को मैदान के किनारे पर रखना मुनासिब समझा, इसने पार स्कोर को कम से कम 20 रन कम कर दिया। जिसका मतलब था कि भारतीय टॉप ऑर्डर एक बार फिर से अपने पुराने ढर्रे पर लौट सकता था। और इसने विश्व कप में सर्वाधिक रन बनाने वाले कोहली को भी अपने चिट परिचित अंदाज़ में खेलने की छूट दी जहां वह स्ट्राइक को रोटेट करते हुए अपनी पारी को बिल्ड कर सकते थे और अंत में अपनी पारी को एक आक्रामक अंजाम दे सकते थे।
हालांकि यह सिद्ध हो रहा था कि पावरप्ले के दौरान भारतीय टीम नियमित तौर पर पिछड़ रही है और अमूमन यह सूर्यकुमार यादव का स्ट्रोकप्ले होता था जो इसकी भरपाई कर दे रहा था। भारत टूर्नामेंट को पावरप्ले के दौरान स्कोरिंग रेट (95.85) के लिहाज़ से दसवें स्थान पर समाप्त करने जा रहा था, जिस मामले में केवल ज़िम्बाब्वे और नीदरलैंड्स ही उससे पीछे थे। एडिलेड में इंग्लैंड के ख़िलाफ़ पावरप्ले के दौरान भारतीय टीम का प्रदर्शन और भी निराशाजनक रहा। इंग्लैंड ने बिना कोई विकेट गंवाए भारतीय गेंदबाज़ी के ख़िलाफ़ 170 रन बनाकर मैच अपने नाम ज़रूर कर लिया लेकिन भारत यह मैच अपनी पारी के पहले दस ओवरों में ही हार चुका था जब उसने सिर्फ़ 62 रन बनाए थे।
समस्या एकदम स्पष्ट थी। विश्व कप से पहले भारत ने आक्रामक अंदाज़ में शुरुआत की थी। लेकिन सवाल यह है कि क्या इसे एक सेट के बल्लेबाज़ों के सहारे निरंतरता के साथ अमली जामा पहनाया जा सकता था जिनके लिए ऐसा करना उनकी प्रवृत्ति के प्रतिकूल था? उन 12 महीनों में रोहित ने आक्रमण का नेतृत्व किया और अक्सर एक अजीब स्ट्रोक पर अपने विकेट को त्याग दिया जोकि उनके स्वभाव के अनुरूप नहीं था। के एल राहुल अभी भी एक पहेली बने हुए हैं, उनमें निरंतरता की कमी साफ़ तौर पर झलक रही है और बड़े मैचों में उनका प्रदर्शन न कर पाना अब भी बड़ा सवाल बना हुआ है। अपने सबसे अच्छे रूप में कोहली ने यह ज़रूर दिखाया कि वह क्या करने में सक्षम हैं लेकिन क्या मैच की परिस्थितियों के इतर उनका नंबर तीन पर बने रहना भारत के लिए सबसे अच्छा है?
अभी भी कई ऐसे सवाल हैं जो भारतीय क्रिकेट को परेशान कर सकते हैं। आईपीएल के 13 वर्षों बाद भी भारत टी20 के विशेषज्ञ खिलाड़ी देने में असमर्थ क्यों है? आख़िर क्यों खिलाड़ियों की भरमार होने के बावजूद भारत को एक 38 वर्षीय फ़िनिशर का रुख करना पड़ा? ऐसा क्यों है कि टॉप ऑर्डर का कोई बल्लेबाज़ विरलय ही गेंदबाज़ी कर सकता है? और सिर्फ़ कुछ तेज़ गेंदबाज़ ही बल्ला चला पाने में सक्षम हैं?
भारत एक त्रुटिपूर्ण टी20 टीम इसलिए रहा है क्योंकि उसे उपब्लध विकल्पों से संतोष करने की आदत पड़ गई है। क्या ऐसा इसलिए है क्योंकि प्रमुख खिलाड़ियों को अपनी फ़्रैंचाइज़ियों के साथ अधिक आरामदायक भूमिकाएं मिल गई हैं? ऐसे बल्लेबाज़ों और स्पिन गेंदबाज़ों की भरमार है जोकि मध्य ओवरों में अधिक सहज हैं। और अभी हाल ही के दिनों तक बुमराह और भुवनेश्वर कुमार के अलावा डेथ ओवर में किसी अन्य गेंदबाज़ का पता लगाना भी एक संघर्ष ही सिद्ध हो रहा था।
सूर्यकुमार केवल अपनी रबर जैसी कलाई और तेज़ हाथों के कारण सभी स्थानों में और सभी गेंदबाज़ों के ख़िलाफ़ विनाशकारी बल्लेबाज़ नहीं बन पाए हैं। उन्होंने एकचित्त होकर स्वयं को ऐसा होने के लिए तैयार किया है। वह इतने चौके और छक्के मारते हैं क्योंकि उन्होंने अपने आवेगों को इस तरह से प्रशिक्षित किया है। उन्हें आप एक गेंद सेट करते हुए देखें और आप देखेंगे कि एक बाउंड्री उनका पहला विकल्प है, और वह केवल तभी कम के लिए समझौता करते हैं जब बाउंड्री लगाने विकल्प नहीं रह जाता। वह भारत के पहले अंतर्राष्ट्रीय स्तर के टी20 स्पेशलिस्ट हैं। और वह मॉडल हैं।
कुछ ही ऐसे खेल इस तरह से विकसित हुए हैं जितनी तेज़ी से टी20 का स्वरूप बदला है। भले ही यह क्रिकेट का सबसे युवा प्रारूप है लेकिन यह अनुमान से काफ़ी जल्दी परिपक्व हुआ है। यह विडंबना भी है और दुखद भी कि भारत टी20 के मानसिक व शारीरिक दोनों पहलुओं में पिछड़ गया है। यह कोई महज़ एक संयोग भर नहीं है कि भारत की एकमात्र टी20 विश्व कप जीत आईपीएल के आगमन से पहले आई है।
कोई अन्य क्रिकेट राष्ट्र विशेषज्ञ टी20 पूल बनाने के लिए बेहतर ढंग से सुसज्जित नहीं है। लेकिन एक शुरुआत तभी की जा सकती है जब यह स्वीकार किया जाए कि भारत के टी20 दृष्टिकोण को ताज़ा करने की नहीं बल्कि नए सिरे से शुरू करने की आवश्यकता है। और यह याद रखने योग्य है कि भारत की पहली टी20 क्रांति एक ऐसे कदम से शुरू हुई थी जब राहुल द्रविड़ ने अपने समकालीनों को समझाया था कि टी20 उनके लिए नहीं था।
संबित बाल ESPNcricinfo के प्रधान संपादक हैं। अनुवाद ESPNcricinfo हिंदी के एडिटोरियल फ्रीलांसर नवनीत झा ने किया है।