क्रिकेट को ढक रही राजनीति, एशिया कप में दिखी ख़राब प्रतिद्वंदिता
भारत और पाकिस्तान के अशोभनीय रवैये ने खेल का सारा आनंद ख़त्म कर दिया
ऐंड्र्यू फ़िडेल फ़र्नांडो
03-Oct-2025 • 3 hrs ago
दोनों टीमों के कप्तानों ने टॉस के दौरान हाथ नहींं मिलाया • AFP/Getty Images
तिलक वर्मा द्वारा पाकिस्तान के ख़िलाफ़ भारत की एशिया कप फ़ाइनल जीत पर आख़िरी शॉट लगाने और पोस्ट-मैच प्रेज़ेंटेशन शुरू होने के बीच 90 मिनट बीत गए। इतने वक़्त में तो एक पूरी अतिरिक्त T20 पारी खेली जा सकती थी। क्रिकेट के सबसे छोटे फ़ॉर्मेट को शुरुआत के दिनों में सबसे हल्का-फुल्का माना जाता था। अब यह सबसे ग्लैमरस, डायनामिक और आसानी से बिकने वाला "प्रोडक्ट" है। इसे 2028 लॉस एंजेलिस ओलंपिक में दिखाया जाएगा, जब क्रिकेट एक बार फिर अमेरिका को जीतने और नए दर्शक खोजने की कोशिश करेगा। अगर इसे वाक़ई एक वैश्विक खेल के रूप में विश्वसनीयता पाना है, तो इससे बेहतर माध्यम कोई नहीं।
सूर्यकुमार यादव की टीम ने एशियाई क्रिकेट परिषद के अध्यक्ष मोहसिन नक़वी से एशिया कप ट्रॉफ़ी लेने से इनकार कर दिया। नक़वी, जो पाकिस्तान के गृह मंत्री भी हैं, ख़ुद पाकिस्तान में भी विवादित राजनेता हैं। उन्होंने यह ट्रॉफ़ी किसी कम विवादित व्यक्ति को सौंपने से इनकार कर दिया। सूर्यकुमार पहले ही संकेत दे चुके थे कि उनकी टीम नक़वी से ट्रॉफ़ी स्वीकार नहीं करेगी, इसलिए यह टकराव पूरी तरह अनुमानित था। फिर भी, पोस्ट-मैच प्रेज़ेंटेशन, जो सामान्यतः तीन कठिन हफ़्तों की प्रतियोगिता के समापन पर एक ख़ुशनुमा पल होना चाहिए था, बंधक बनकर रह गया और आख़िरकार कोई ट्रॉफ़ी सार्वजनिक रूप से सौंपी ही नहीं गई।
फ़ाइनल के बाद के 48 घंटे हाई-प्रोफ़ाइल प्रतिक्रियाओं और उन पर प्रतिक्रियाओं से भरे रहे। हर नई आवाज़ ने इस बहस को और तीव्र किया, जबकि क्रिकेट संबंधी तथ्य बेहद कम थे। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने X पर भारत की इस जीत को मैदान का "ऑपरेशन सिंदूर" बता दिया था। जवाब में सूर्यकुमार ने मोदी की तारीफ़ करते हुए कहा कि उन्होंने भारत के लिए "फ़्रंट फ़ुट" पर बल्लेबाज़ी की। नक़वी ने नाराज़ होकर लिखा कि मोदी को "युद्ध को खेल में नहीं घसीटना चाहिए", जबकि कुछ ही दिन पहले नक़वी ने ख़ुद एक स्पोर्ट्स GIF पोस्ट किया था जिसमें विमानों के गिराए जाने का इशारा था। इससे पहले हारिस रऊफ़ ने एक मैच में फ़ील्डिंग करते समय विमान दुर्घटना जैसा एक्शन किया था और साहिबज़ादा फ़रहान ने अर्धशतक पूरा करने के बाद अपनी बल्ले से बंदूक चलाने जैसी सेलिब्रेशन की थी।
इस बीच वर्मा की 69* रन की परफ़ेक्ट पारी, जिसने भारत को 20 पर 3 से उबार लिया को बहुत कम ध्यान मिला। फ़हीम अशरफ़ और शाहीन अफ़रीदी के नई गेंद से किए गए धाकड़ ओवरों ने टूर्नामेंट के सबसे रोमांचक पल बनाए, जिन्हें लगभग नज़रअंदाज़ कर दिया गया। जब राजनीति खेल पर इतनी मज़बूती से चिपक जाती है, तो यह आश्चर्य की बात नहीं कि क्रिकेट की रूह का थोड़ा-सा हिस्सा भी दब जाता है।
लेकिन राजनीति खेल की पवित्रता पर दबाव डालने वाली दो बड़ी ताक़तों में से सिर्फ़ एक है। दूसरी ताक़त एशिया कप में उतनी ही साफ़ दिखाई दी। सूर्यकुमार ने एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस में कहा कि "[ज़िंदगी में] कुछ चीज़ें खेल भावना से ऊपर होती हैं," यह समझाने के लिए कि उनकी टीम ने पाकिस्तानी खिलाड़ियों से सार्वजनिक रूप से हाथ मिलाने से इनकार क्यों किया। लेकिन हाथ मिलाएं या नहीं, ये टीमें तीन बार आमने-सामने आईं, क्योंकि टूर्नामेंट की संरचना ही इस तरह की गई थी कि भारत बनाम पाकिस्तान तीन बार होने की संभावना सबसे ज़्यादा रहे, ताकि रेवेन्यू अधिकतम हो सके।
Sahibzada Farhan का गन सेलिब्रेशन•AFP/Getty Images
वैश्विक टूर्नामेंटों में भी लंबे समय से यह तय माना जाता है कि भारत और पाकिस्तान हमेशा एक ही ग्रुप में शुरू करेंगे, जिससे उन्हें थोड़ा प्रतिस्पर्धी फ़ायदा भी मिलता है। वे टीमें शेड्यूल घोषित होने से बहुत पहले एक-दूसरे की योजना बना सकती हैं। अधिक गंभीर बात यह है कि एशिया की "बिग फ़ाइव" टीमों (भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान) में से हर टीम बेहतर प्रदर्शन करने में सक्षम है, लेकिन बाक़ी तीनों (अफ़ग़ानिस्तान, बांग्लादेश और श्रीलंका) को लगातार तीसरे एशिया कप में "ग्रुप ऑफ़ डेथ" में डाल दिया गया। वहीं भारत और पाकिस्तान के पास ग्रुप A में खेलने के लिए दो एसोसिएट टीमें ओमान और UAE थीं।
ग्रुप चरण से दो-दो टीमें सुपर फ़ोर में पहुंचीं। फिर शेड्यूल फ़िट करने के लिए एक टीम को लगातार दो रातों में खेलना पड़ा। यह बोझ भी ग्रुप B की टीम पर डाला गया (इस बार बांग्लादेश, जिसने एक मैच के लिए अपने मुख्य खिलाड़ियों को आराम दिया)। पिछले एशिया कप में, जो श्रीलंका में मॉनसून के बीच आंशिक रूप से खेला गया था, सुपर फ़ोर चरण में सिर्फ़ भारत-पाकिस्तान मैच को रिज़र्व डे का सुरक्षा कवच मिला था। इस साल का सबसे लाभकारी एशिया कप भारत और पाकिस्तान के बीच लगातार तीन रविवार प्राइम टाइम में हुए मुक़ाबलों के रूप में निकला।
बाक़ी छह टीमें, जिन्होंने सामने आए हर हाथ से हाथ मिलाया, हर प्रेस कॉन्फ़्रेंस में हाज़िर हुईं, जिन्होंने महत्वपूर्ण संसाधन लगाए और महीनों तैयारी की, वे सब मानो सिर्फ़ भारत-पाकिस्तान मेलोड्रामा के साक्षी भर रह गए। प्रतिस्पर्धी संतुलन किसी भी खेल की बुनियाद है और फिर भी क्रिकेट इसे पूंजीवाद की वेदी पर चढ़ाने को तैयार है।
दुबई से उठे इस विवाद के तत्काल असर क्रिकेट की दुनिया में और जगहों पर भी पड़ेंगे। वर्तमान समय में चल रहे महिला वर्ल्ड कप में पाकिस्तान की कप्तान फ़ातिमा सना राजनीतिक तनाव पर पूछे गए सवालों से असहज दिखीं। ख़ासकर जब रविवार को कोलंबो में उनके भारत से मुक़ाबले का ज़िक्र हुआ। अब उनकी टीम और हरमनप्रीत कौर की टीम को सार्वजनिक तौर पर कैसे व्यवहार करना है, इसकी रणनीति बनानी होगी। क्या वे पुरुषों की नकल करते हुए हाथ मिलाने से इनकार करेंगी? क्या नेता भी उनके मैच को सैन्य कार्रवाई का विस्तार मानेंगे?
दक्षिण एशियाई महिला खिलाड़ियों के लिए वैसे ही सांस्कृतिक और राजनीतिक माहौल पुरुष खिलाड़ियों की तुलना में कहीं अधिक कठिन है। इस क्षेत्र में लैंगिक समानता कुछ और जगहों की तुलना में बहुत दूर का सपना है। अब वर्ल्ड कप के बीच ही उनके सामने यह ज़हरीला तीर भी आ खड़ा हुआ है। सबसे चिंताजनक बात यह है कि खेल की वर्तमान दिशा में निकट भविष्य में कोई बड़ा बदलाव नज़र नहीं आता। भारत-पाकिस्तान का राजनीतिक रिश्ता जो दशकों से तनावपूर्ण है, सुधरने के कोई संकेत नहीं दिख रहे। भले ही क्रिकेट में अब पहले से कहीं ज़्यादा पैसा है, लेकिन यह भारत के अलावा कहीं और केंद्रित होने वाला नहीं जो पहले से ही क्रिकेटिंग महाशक्ति है जैसी कि इस खेल ने पहले कभी नहीं देखी।
कभी दक्षिण एशियाई क्रिकेट बोर्डों में प्रेरणादायक सहयोग भी हुआ करता था। ख़ासकर 1996 में जब पाकिस्तान, भारत और श्रीलंका ने मिलकर वर्ल्ड कप की मेज़बानी की थी। उस समय पारंपरिक क्रिकेट शक्तियों की आलोचना थी कि यह क्षेत्र ऐसा आयोजन कर ही नहीं सकता। उस वर्ल्ड कप से पहले भारत और पाकिस्तान ने मिलकर कोलंबो में एक संयुक्त टीम उतारी थी, यह दिखाने के लिए कि श्रीलंका क्रिकेट के लिए सुरक्षित है। वसीम अकरम और सचिन तेंदुलकर एक ही टीम बस में साथ यात्रा कर रहे थे। एक साथ रणनीति बना रहे थे। एक ही जर्सी पहन रहे थे और मिलकर श्रीलंकाई दर्शकों को खुशी दे रहे थे। आज ऐसी घटनाओं की कल्पना भी असंभव है।
दुनिया के किसी हिस्से में क्रिकेट इतना गहरा सांस्कृतिक प्रतीक नहीं जितना एशिया में है, न ही कोई ऐसा क्षेत्र है जो इस खेल को इतना बड़ा कैनवास देता हो। एक दक्षिण एशियाई दोपहर में, फ़ुल टॉस उतनी ही आसानी से जाफ़ना के ताज़ा कटे खेतों पर, कर्नाटक के आम के बाग़ानों पर, कॉक्स बाज़ार की लहरों पर या हिमालयी ढलानों पर छक्के में तब्दील हो सकता है। एक ही दिन में, एक बाएं हाथ का कलाई स्पिनर सुबह गली क्रिकेट में रबर की गेंद घुमा सकता है, दोपहर को अकादमी नेट्स में हार्ड बॉल डाल सकता है और रात में टेप बॉल के साथ फ़्लडलाइट्स में खेल सकता है। पूर्वी अफ़ग़ानिस्तान में पिछले साल, क्रिकेट प्रशंसक सार्वजनिक जगहों पर टीम की जीत का जश्न मनाने इकट्ठा हुए, तालिबान की मनाही की परवाह किए बिना। उन्हें तितर-बितर करने के लिए बंदूकधारी आए।
इस रोमांचक एशिया कप फ़ाइनल के बाद इन ख़ुशियों का नज़ारा बहुत कम दिखा। इसके बजाय पहले से ही समझौता किया गया खेल राजनीतिक विभाजन का औज़ार बन गया। एक साझा जुनून अब और गहरे सांस्कृतिक खाई में तब्दील हो गया है। जिस क्षेत्र में क्रिकेट सबसे अधिक प्रिय है वहां खेल के सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन के बजाय यह एशिया कप रोग का प्रदर्शन बनकर रह गया।
ऐंड्र्यू फ़िडेल फ़र्नांडो ESPNcricinfo के वरिष्ठ लेखक हैं।