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मोंगा : भारतीय क्रिकेटरों को जातिगत विशेषाधिकार और उत्पीड़न के बारे में जागरूक होने की ज़रुरत है

मैदान में हाल की हुई एक घटना से इस क्षेत्र में क्रिकेटरों की शिक्षा का अंदाज़ा लगाया जा सकता है

India's bowling pack, minus Hardik Pandya, walk off after a good day at work, India vs New Zealand, 2nd ODI, Raipur, January 21, 2023

भारतीय खिलाड़ियों को जातिवाद और उससे जुड़ी भाषा को समझने की ज़रूरत है  •  Associated Press

स्टंप माइक से क्रिकेटर को काफ़ी नुक़सान होता है। एक क्रिकेट का मैदान कोई आम दफ़्तर जैसा नहीं होता। यहां ऐसी बातें की जाती हैं, जिसको कहने पर आपको आम कार्यालय में नौकरी से हटाया जा सकता है। ऐसा भी नहीं है कि स्टंप माइक की आवाज़ को केवल शॉट लगने तक ही ऊपर रखा जाता है और अगर स्टंप माइक में कही जाने वाली बातें इतनी ही ज़रूरी होतीं तो शायद कॉमेंट्री बॉक्स में कोई नहीं बैठता।

हालांकि स्टंप माइक के होने से हाल ही में एक ऐसी घटना घटी जिससे हमें भारतीय क्रिकेट के एक पहलू पर नज़र डाल सकते हैं। भारत और बांग्लादेश के बीच मीरपुर में दूसरे टेस्ट के दौरान एक भारतीय खिलाड़ी ने एक साथी को मिसफ़ील्ड करने पर मज़ाक़ में ही सही, लेकिन "छपरी" बुलाया। क्योंकि यह स्टंप माइक पर सुनाई दिया था, इसलिए खिलाड़ी की पहचान का अनुमान लगाना निरर्थक है।

'छपरी' भारत के पिछड़े समुदायों में एक है, जिनका पारिवारिक काम होता है घर के छप्पर को ठीक करने का। यह सोच कर देखिए - कि आप किस काम को अपनाएंगे, यह बात आपके जन्म से ही तय कर दिया जाता है। इस शब्द को हालिया समय में ऐसे व्यक्ति के लिए उपयोग किया जाता है जो चमकीले कपड़े पहनता है या क़ीमती चीज़ें ख़रीदता और रखता है। सालों से उत्पीड़ित समुदाय जब अधिक पैसा कमाते हैं और इसका इज़हार करते हैं, तो तथाकथित ऊंची जाति के लोग उनको नीचा दिखाने के लिए उन्हें उपहास का पात्र बनाते हैं।

ऐसे शब्द बोलचाल की भाषा में आ चुके हैं और शायद ऐसे में हम इस क्रिकेटर के इस शब्द के उपयोग को समझ सकते हैं। शायद उन्होंने इस बात से किसी को ठेस नहीं पहुंचना चाहा हो। फिर भी ऐसे शब्द के प्रयोग को सही नहीं ठहराया जा सकता।

कोविड-19 के दौरान आपको याद होगा जब इंस्टाग्राम पर रोहित शर्मा के साथ बात करते हुए युवराज सिंह ने किसी संदर्भ में युज़वेंद्र चहल को 'भंगी' बुलाया था। इस बात पर रोहित भी ख़ूब हंसे थे। 'भंगी' भी ऐसा समुदाय है, जिन्हें जन्म के आधार पर नाले और शौचालय को साफ़ रखने का काम दिया जाता है। जब इस बात पर युवराज की आलोचना हुई थी, तब उन्होंने माफ़ी तो नहीं मांगी थी, लेकिन यह कहा था कि उन्हें "ग़लत समझा गया था" और उन्होंने "अनजाने" में किसी को दुःख पहुंचाने पर "खेद" प्रकट किया था।

इस बात से ऐसा कुछ निष्कर्ष नहीं निकलता कि युवराज किसी तरीक़े से बुरे इंसान हैं। हालांकि यह स्पष्ट था कि उनके सलाहकारों में कोई ऐसा नहीं था या थीं जो उन्हें बता सके कि उनके शब्दों से एक पूरे समुदाय पर कितना गहरा घाव लगा था। मुंबई में 'छपरी' की तरह उत्तर भारत में 'भंगी' बिना सोचे समझे एक अपमान के रूप में कई बार प्रयोग किया जाता है।

याद कीजिए कि भारतीय टीम ने अमरीका के 'ब्लैक लाइव्स मैटर' अभियान का समर्थन किया है। यह वही टीम है जिसने ऑस्ट्रेलिया में नस्लवादी शब्दों के प्रयोग के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई थी। क्या आप सोच सकते हैं कि अगर ऑस्ट्रेलियाई दर्शक कहते कि उनकी बातों को ग़लत समझा गया था और क्रिकेट ऑस्ट्रेलिया कोई एक्शन नहीं लेता, तो भारतीय खिलाड़ियों को कैसा लगता?

जब भी भारतीय क्रिकेट पर जाति का विवाद होता है तो समर्थक बौखला उठते हैं। उनके हिसाब से क्रिकेट में ऐसे भेदभाव को कोई जगह नहीं। लेकिन क्या आप किसी खेल को सामाजिक सच्चाई से अलग मान सकते हैं?

भारतीय क्रिकेट टीम के चेहरों को देखकर यह कहना कठिन है कि इसके चयन में कोई भेदभाव होता है। हालांकि भारत ने इतिहास में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से बहुत ही कम खिलाड़ियों को सर्वोच्च स्तर पर मौक़ा दिया है। अगर कुछ खिलाड़ी आगे आएं हैं तो वह अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) के समुदायों से रहे हैं।

भारत में बच्चों को जातिवाद और उससे उत्पन्न परिस्थितियों के ज्ञान से दूर रखा जाता है। मैंने साउथ अफ़्रीका के कई ऐसे खिलाड़ियों से बात की है जो अपार्थाइड के दौरान बड़े हुए हैं। उन्हें भी अपने देश के हक़ीक़त का अंदाज़ा तब ही लगा था जब इस घिनौनी प्रथा को 1990 के दशक के बाद हटा दिया गया था।

भारत में ऐसा कहना कि पिछड़े वर्ग के खिलाड़ियों को आगे बढ़ने का मौक़ा नहीं दिया जाता, यह किसी मज़ाक़ से कम नहीं। भारत के कई हिस्सों में आज भी पिछड़े वर्ग के लोगों को मैदान में घुसने तक की आज़ादी नहीं मिलती। खेल में एक स्तर तक पहुंचने के लिए तो काफ़ी और चीज़ों की ज़रूरत पड़ती है।

अगर भारत के लिए खेलने वाले सुपरस्टार को जातिवाद से भरी शब्दों का प्रयोग करने में कोई झिझक नहीं होती, तो क्या आप अंदाजा लगा सकते हैं कि भारत के छोटे शहरों और गावों में पिछड़े वर्ग के लोगों के साथ कैसा बर्ताव होता होगा?

मैंने बीसीसीआई में कई बार पूछा है कि क्या कभी किसी पिछड़े जाति या जनजाति का सदस्य किसी बड़े पद पर पहुंचा है, लेकिन इसका कोई जवाब नहीं है। एक राज्य के अधिकारी ने एक बार बताया था कि उनके स्टेट एसोसिएशन में एक बार कुछ एक तथाकथित निम्न जाति के सदस्य पदाधिकारी बने थे। तब एक सुपरस्टार क्रिकेटर ने अख़बार में कुछ ऐसा बयान दिया, कि "क्या अब धोबी और मोची हम पर राज करेंगे?"

क्रिकेट मैच करवाने, अकादमी चलाने और एक अच्छी प्रक्रिया को जन्म देने में बीसीसीआई ने बहुत अच्छा काम किया है। लेकिन यह भी सोचिए कि भारत जैसे विशाल देश में, जहां अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोग आबादी का एक-चौथाई हिस्सा हैं, कितनी प्रतिभा को तराशना अभी भी बाक़ी है।

फ़िलहाल खिलाड़ियों को जातिवाद और उससे जुड़ी भाषा को समझाने से शुरुआत की जा सकती है।

सिद्धार्थ मोंगा ESPNcricinfo में असिस्टेंट एडिटर हैं, अनुवाद ESPNcricinfo हिंदी के प्रमुख देबायन सेन ने किया है