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भारत बनाम समय: बिना जीते विपक्षी टीम को हराने की लंबी लड़ाई

मुख्य कोच गंभीर और बल्लेबाज़ी कोच कोटक पहले ऐसा कर चुके हैं, लेकिन अब वे सिर्फ़ अनुभव बांट सकते हैं, लेकिन चाहकर भी वक़्त की रफ़्तार नहीं बढ़ा सकते

शायद वक़्त से ज़्यादा ठोस और निष्पक्ष चीज़ कोई नहीं। हर सेकंड, एक ही रफ़्तार से बीतता है। 60 सेकंड मिलकर एक मिनट बनाते हैं। न ज़्यादा, न कम। आप इसकी चाल नहीं बदल सकते। पृथ्वी को तेज़ घुमाना तो दूर, उसे धीमा भी नहीं किया जा सकता। और जब आप टेस्ट मैच में इतने पीछे हों कि जीत की कोई उम्मीद न बचे, तब वक़्त की यह सच्चाई सबसे ज़्यादा महसूस होती है। और जब आपके सामने बस एक रास्ता बचा हो - पांच सेशन तक टिककर बल्लेबाज़ी करो और मैच बचाओ, तब तो मानो वक़्त थोड़ा और धीमा हो जाता है।
आधुनिक टेस्ट गेंदबाज़ी के ख़िलाफ़ जब तक हालात आपके पक्ष में न हों, पांच सेशन निकालना आसान नहीं होता। या तो पिच पर मूवमेंट और उछाल कम होनी चाहिए, या पिच को इतना थका हुआ होना चाहिए कि गेंदबाज़ों को असर पैदा करने में दिक्कत हो। अगर विपक्षी टीम का सर्वश्रेष्ठ गेंदबाज़ दो सेशन के लिए बाहर हो जाए, तो थोड़ी राहत मिलती है।
तभी वक़्त से असली लड़ाई शुरू होती है। जो महसूस करने में बेहद व्यक्तिगत हो सकता है। ऐसे हालात में समय बहुत धीरे चलता लगता है, कम से कम बाहर बैठे लोगों को तो ऐसा ज़रूर लग सकता है।
भारतीय ड्रेसिंग रूम में दो लोग हैं जो ऐसे हालात का सामना कर चुके हैं। कोच गौतम गंभीर ने एक बार 643 मिनट तक बल्लेबाज़ी की थी और सिर्फ़ 137 रन बनाए थे। उस प्रदर्शन की बदौलत 2008-09 में उन्होंने नेपियर टेस्ट ड्रॉ करवाया। वहीं बल्लेबाज़ी कोच सितांशु कोटक ने मुंबई के ख़िलाफ़ वानखेड़े में 796 मिनट तक डटे रहकर मैच बचाया था। यह रणजी ट्रॉफी की ऐतिहासिक पारियों में से एक मानी जाती है।
ऐसा अनुभव साझा किया जा सकता है - जैसे चार ओवर मतलब 15 मिनट, आठ ओवर आधा घंटा, फिर एक ड्रिंक्स ब्रेक, और फिर सेशन ब्रेक। ये छोटी-छोटी मील के पत्थर होते हैं, जिसे पार करते हुए आप पांच सेशन तक बल्लेबाज़ी कर सकते हैं।
लेकिन एक बात तो तय है कि कोटक और गंभीर समय की रफ़्तार को तेज़ नहीं कर सकते। इस तरह के ड्रॉ निकालने की सबसे बड़ी चुनौती यह होती है कि आप खु़द से आगे न निकल जाओ। आप यह नहीं सोच सकते कि "अब तो सब कुछ आसान लग रहा है"। और अब अगली चुनौती के बारे में विचार करने लगें, जैसे -- बेन स्टोक्स, दूसरी नई गेंद, या बादल। रन चेज़ में ऐसा सोचकर थोड़ा रिस्क लिया जा सकता है, लेकिन यहां एक भी चूक भारी पड़ सकती है।
यहां वैसा कुछ नहीं है। हर गेंद पर फोकस करना होगा। कोई शॉर्टकट नहीं। बस इंतज़ार करना है कि समय ख़ुद बीत जाए। ध्यान और सहजता के बीच संतुलन बनाना पड़ता है। बहुत ज़्यादा फोकस करेंगे तो थक जाएंगे, बहुत ढीले हुए तो ग़लती हो सकती है। और अगर आउट हुए तो वक़्त आपके लक्ष्य को दुत्कारते हुए आगे बढ़ जाएगा।
केएल राहुल और शुभमन गिल में तकनीक भी है और संयम भी। गिल स्वभाव से शांत हैं, और राहुल ने इतने उतार-चढ़ाव देखे हैं कि अब उन्हें हालात से बहकने की ज़रूरत नहीं। दोनों एक-एक बार टेस्ट में मानसिक रूप से बिखर चुके हैं - राहुल साउथ अफ़्रीका में, गिल लॉर्ड्स में।
लेकिन जब बल्ला हाथ में हो, तो ये वही हथियार बन जाता है जो उन्हें वक़्त से लड़ने में मदद करता है। उन्होंने हैट्रिक बॉल झेली, लंच से पहले के मुश्किल तीन ओवर झेले, फिर नई गेंद, फिर ड्रिंक्स ब्रेक, फिर 15-15 मिनट के टुकड़ों में टी ब्रेक तक पहुंचे, फिर वही क्रम दोहराते हुए स्टंप्स तक।
कुछ और छोटे लक्ष्य भी थे। जैसे - जोफ़्रा आर्चर का स्पेल। फिर उन्हें बाउंसर डालने पर मजबूर करना। फिर जब वह राउंड द विकेट आएं, तो एक-एक गेंद पर ध्यान देना। लियम डॉसन ने एंगल बदला तो उसे किक करके बाहर करना। एक-एक गेंद के हिसाब से खेलना। जैसे गिल ने 62वें ओवर में किया। तब तक वह 162 गेंद खेल चुके थे।
राहुल, जो गिल के बाद बल्लेबाज़ी करने आए, स्टंप्स तक 210 गेंद खेल चुके थे - गिल से 33 ज़्यादा। एक बार तो वह इतने ज़्यादा डूब गए कि रन लेना ही भूल गए - गिल को चिल्लाना पड़ा।
रन तभी बने जब गेंद बहुत ख़राब थी या फिर सहजता से खेला गया शॉट लग गया। कई बार रन इसलिए भी बनाए गए ताकि कुछ समय और लिया जा सके। जब लगातार डिफेंस किया जा रहा हो, तो भले समय धीमा लग रहा हो, लेकिन मानसिक थकावट इतनी हो जाती है कि सब तेज़ लगने लगता है। ऐसे में एक चौका मारना, भागकर दूसरे छोर जाना, नॉन-स्ट्राइकर से ग्लव टच करना, यह सब आपको दोबारा संतुलन में लाता है।
काम अभी बस 40% पूरा हुआ है। पांचवां दिन अपने हिसाब से ही चलेगा - कभी तेज़, कभी धीरे। फिर नए मील के पत्थर आएंगे। पहले खु़द को सेट करना, फिर 17 ओवर बाद नई गेंद, फिर पूरी तरह अलर्ट मोड में जाना। हो सकता है कोई निजी उपलब्धि पास आ जाए। अगर भारत लक्ष्य के क़रीब पहुंचता है, तो हर रन इंग्लैंड को और ज़्यादा परेशान करेगा, क्योंकि फिर इंग्लैंड को भी उतना ही वक़्त लेकर रन बनाने होंगे। और तब समय उनके हाथ से फिसलने लगेगा।
ऐसी पारियां शायद खेल के जुनूनी लोग ही पूरी तरह समझते हैं, लेकिन इनमें वही प्रतिस्पर्धा है जो खेल को खेल बनाती है। ओल्ड ट्रैफर्ड की ख़ूबसूरत शाम में जैसे-जैसे परछाइयां लंबी होती हैं, समय स्थिर गति से बह रहा है। और रविवार की सुबह यह फिर से अपनी रफ़्तार खोज लेगा - किसी के लिए धीमा, किसी के लिए तेज़। लेकिन हक़ीक़त में, यह बस एक सेकंड प्रति सेकंड ही चलता है।