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गंभीर का अब तक का कार्यकाल : कांटे की टक्कर, महंगे फ़ैसले और बढ़ता टेस्ट संकट

अपने 18 टेस्ट मैचों के अब तक के कार्यकाल में गंभीर को ऐसे नतीजे नहीं मिल पाए हैं जिसकी उनकी टीम हक़दार है

हम एक टीम के तौर पर जीतते हैं और एक टीम के तौर पर हारते हैं।
गौतम गंभीर अमूमन अपनी प्रेस कॉन्फ़्रेंस में यही जवाब देते हैं जब भी उनसे व्यक्तिगत सफलता या असफलता से जुड़ा सवाल पूछा जाता है। हालांकि शायद अब वह समय आ गया है जब हम उनके ग्रुप में एक व्यक्ति की बात करें - ख़ुद गंभीर।
गंभीर के अब तक के एक वर्ष के कार्यकाल में कोलकाता टेस्ट की हार सहित भारत घर पर चार टेस्ट हार चुका है जो कि उनसे पहले के तीन कोच राहुल द्रविड़, रवि शास्त्री (इसमें शास्त्री के दो कार्यकाल शामिल हैं - एक मुख्य कोच और एक निदेशक के रूप में) और अनिल कुंबले ने मिलकर एक दशक में कुल चार टेस्ट मैच घर पर हारे थे।
गंभीर के कार्यकाल में भारत ने घर पर चार टेस्ट मैच जीते हैं, दो बांग्लादेश के ख़िलाफ़ और दो वेस्टइंडीज़ के ख़िलाफ़। न्यूज़ीलैंड और साउथ अफ़्रीका के ख़िलाफ़ मिलाकर गंभीर के कार्यकाल में टेस्ट में भारत का रिकॉर्ड 0-4 का है। जबकि उनके कार्यकाल में घर और बाहर टेस्ट में भारत का रिकॉर्ड 7-9 है।
यह सुखद नहीं है।
हालांकि इसके पीछे कई कारण हैं। गंभीर ने ऐसे समय में भारतीय कोच का कार्यभार संभाला जब भारत ट्रांज़िशन फ़ेज़ में था। उनके सामने ही रोहित शर्मा, विराट कोहली और आर अश्विन ने संन्यास लिया। भारत को सभी हार मुश्किल पिचों पर नसीब हुईं जहां थोड़ी सी भी ख़राब क़िस्मत मैच का पासा पलटने के लिए काफ़ी थी। कोलकाता टेस्ट में भी ऐसा ही कुछ हुआ, भारत टॉस हारा - न्यूज़ीलैंड के ख़िलाफ़ पुणे और मुंबई में भी ऐसा ही हुआ था - और शुभमन गिल चोटिल होने के चलते सिर्फ़ तीन गेंद तक ही बल्लेबाज़ी कर पाए। भारत को 30 रनों से हार मिली, यह एक ऐसा मैच था जहां भारत जीत से अधिक दूर नहीं था।
लेकिन यह एक ऐसी समस्या है जो गंभीर के कार्यकाल में शुरू से ही रही है। यह एम एस धोनी और डंकन फ़्लेचर की दौर वाली टीम नहीं है जिसे ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड में 0-4 से हार मिलने के साथ ही घर पर इंग्लैंड के ख़िलाफ़ 1-2 से हार झेलनी पड़ी थी। वो एक ऐसी टीम थी जिसका बल्लेबाज़ी क्रम ट्रांज़िशन में तो था ही, इसके साथ ही उनके पास एक अनुभवहीन आक्रमण था जो बहुत लंबे समय तक विपक्षी टीम को दबाव में नहीं रख पाता था।
गंभीर की टीम वैसी टीम नहीं है, उनके पास विश्व स्तरीय गेंदबाज़ हैं, जिनके पास अनुभव भी है और विकेट लेने की क्षमता भी है। बल्लेबाज़ी भी मज़बूत और गहरी है और अब तक भारत को रोहित और कोहली की कमी महसूस नहीं हुई है। हालांकि अगर गिल गुवाहाटी टेस्ट नहीं खेल पाते हैं तो भारत को इनमें से एक की कमी ज़रूर खलेगी क्योंकि गिल की अनुपस्थिति में भारत के पास बाएं हाथ के बल्लेबाज़ों को भरमार हो जाएगी। इंग्लैंड दौरे पर ही भारतीय बल्लेबाज़ों ने अपने प्रदर्शन से काफ़ी प्रभावित किया था।
गंभीर के कार्यकाल में भारत ने घर पर और बाहर विपक्षी टीम को लगभग हार पर कड़ी टक्कर दी है। उन्होंने अपने प्रमुख खिलाड़ियों की अनुपस्थिति में भी टेस्ट मैच जीते हैं। पर्थ में उन्होंने दो नए खिलाड़ियों के साथ मैच जीता, जिसमें एक खिलाड़ी ने एक बल्लेबाज़ ने तब तक सिर्फ़ एक और दूसरे बल्लेबाज़ ने सिर्फ़ तीन टेस्ट ही खेले थे। ओवर और ऐजबेस्टन में उन्होंने जसप्रीत बुमराह के बिना जीत हासिल की।
और कोलकाता की हार ने 'क्या होता अगर' के लिहाज़ से सोचने पर मजबूर कर दिया है।
भारतीय प्रशंसक के लिए हताशापूर्ण यह है कि यह 'क्या होता अगर' के पल ऐसे पल नहीं थे जो किसी के नियंत्रण में नहीं थे। बल्कि इनमें से कई चयन और रणनीति से जुड़े फ़ैसले थे जो टीम मैनेजमेंट ने सोच-विचार के लिए थे।
भारतीय एकादश में लगातार तीन ऑलराउंडरों के चयन पर ही विचार करते हैं जिससे भारत आठवें नंबर तक बल्लेबाज़ी में गहराई सुनिश्चित तो करता है ही इसके साथ ही इससे भारत को छह गेंदबाज़ी विकल्प भी मिलते हैं। भारत में इस तरह की टीम चुनना एक अलग बात है जहां रवींद्र जाडेजा, वॉशिंगटन सुंदर और अक्षर पटेल विकेट लेने वाले विकल्प होते हैं। लेकिन विदेशी सरज़मीं पर चौथे विकेट टेकिंग गेंदबाज़ की क़ीमत पर जाडेजा, वॉशिंगटन और नीतीश कुमार रेड्डी या शार्दुल ठाकुर में से किसी एक को एकादश में चुनना बिल्कुल ही अलग बात है।
इसने ऐसी स्थिति से भारत के मैच पर नियंत्रण गंवाने में भूमिका निभाई है जब मैच या तो संतुलित था या भारत मैच में विपक्षी टीम पर हावी था। विकेट लेने की क्षमता में कमी ने भारत को मेलबर्न क्रिकेट ग्राउंड, सिडनी क्रिकेट ग्राउंड, हेडिंग्ली और लॉर्ड्स जैसे महत्वपूर्ण मौक़ों पर परेशान किया है। इस कारण भारत अपने सट्राइक गेंदबाज़ों से ज़रूरत से ज़्यादा गेंदबाज़ी कराने पर भी मजबूर हुआ।
गंभीर के कार्यकाल में भारत ने लगातार एक और रणनीति जो अपनाई वो घर पर पिच चुनने से जुड़ी है। हालिया समय में अन्य भारतीय कोचों ने भी मज़बूत विपक्षी टीम के भारत आने पर आक्रामक पिचों का सहारा लिया लेकिन एक तरफ़ जहां इन पिचों पर हार मिलने पर गंभीर से पहले के कोचों ने अपने फ़ैसले पर फिर से विचार किया तो वहीं गंभीर ने कदम पीछे खींचने के बजाय इस पर और भी ज़्यादा ज़ोर दिया है।
सामान्य तौर पर यह एक अच्छी बात है कि आप नतीजों को अपने विचार पर हावी नहीं होने देते। इस नज़रिए से गंभीर तारीफ़ करने योग्य हैं और कोई भी सांख्यिकीविद चार टेस्ट के आधार पर किसी निष्कर्ष पर पहुंचने को जल्दबाज़ी ही बताएगा।
एक लंबे टेस्ट में जहां तेज़ गेंदबाज़ों और स्पिनरों को बार-बार वापसी करना होती है और अपनी लय बरक़रार रखनी होती है तो आप किस गेंदबाज़ी आक्रमण पर दांव लगाएंगे? बुमराह, सिराज, अक्षर, जाडेजा, वॉशिंगटन और कुलदीप वाले आक्रमण पर या मार्को यानसन, कॉर्बिन बॉश, वियान मुल्डर, साइमन हार्मर और केशव महाराज वाले आक्रमण पर? अगर भारत की पहली पारी वाली विकेट पर बुमराह, कुलदीप और जाडेजा के रूप में भारत की ओर से विकेट टेकिंग विकल्प लय में न भी हों तब भी भारत के पास ऐसा आक्रमण उपलब्ध होगा जो बल्लेबाज़ों पर लगाम लगा पाएं, लेकिन ठीक यही बात साउथ अफ़्रीका के आक्रमण के लिए नहीं कही जा सकती अगर बॉश की जगह कगिसो रबाडा को रख दिया जाए तब भी।
तो फिर ऐसी पिचों पर क्यों ही खेलना?
इसका जवाब वही है जो शायद ऑलराउंडरों के सवाल का जवाब है - विश्वास की कमी, भारत के पास मौजूदा प्रतिभा को लगातार कम आंकना।
अपने 18 टेस्ट मैचों के कार्यकाल में गंभीर का रिकॉर्ड उनके खिलाड़ियों के साथ न्याय नहीं करता है। ऐसे कोई संकेत नहीं हैं कि गंभीर की जगह पर किसी तरह का ख़तरा मंडरा रहा है, ख़ास तौर पर तब जब सफ़ेद गेंद प्रारूप में उनका रिकॉर्ड काफ़ी शानदार है। लेकिन भारत अगर यह सीरीज़ हार जाता है तो विश्व टेस्ट चैंपियनशिप फ़ाइनल के लिए अपनी राह को मुश्किल कर लेता है तब सवाल ज़रूर उठ सकते हैं। ऐसे में उनके हित में यही होगा कि वह अपने खिलाड़ियों की क्षमता पर विश्वास जताएं और अनदेखी आशंकाओं के बारे में चिंता न करें।
यह लेख मुख्य रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित किया गया था जिसे आप यहां पढ़ सकते हैं।

कार्तिक कृष्णास्वामी ESPNcricinfo के सहायक एडिटर हैं।